Class 11 micro Economics CBSE Notes chapter 6 Producer Behavior and Supply ( 6 . उत्पादक का व्यवहार और पूर्ति ) in hindi Medium latest
CBSE Revision Notes for CBSE Class 11 Economics Producer Behaviour and Supply Production function –Short-Run and Long-Run Total Product, Average Product and Marginal Product. Returns to a Factor Cost: Short run costs - total cost, total fixed cost, total variable cost; Average cost; Average fixed cost, average variable cost and marginal cost-meaning and their relationships. Revenue - total, average and marginal revenue - meaning and their relationships. Producer's equilibrium-meaning and its conditions in terms of marginal revenue-marginal cost. Supply, market supply, determinants of supply, supply schedule, supply curve and its slope, movements along and shifts in supply curve, price elasticity of supply; measurement of price elasticity of supply - (a) percentage-change method and (b) geometric method.
Class 11 Economic CBSE Notes in hindi chapter 6 Producer Behavior and Supply
11 वीं कक्षा के अर्थशास्त्र सीबीएसई नोट्स अध्याय 6 उपभोक्ता उत्पादक का व्यवहार और पूर्ति हिंदी में।
उत्पादन फलन :-
किसी वस्तु के भौतिक आगतों तथा भौतिक निगों के बीच फलनात्मक सम्बन्ध को उत्पादन फलन कहते हैं ।
उत्पादन फलन दो प्रकार के होते हैं -
( i ) अल्पकालीन उत्पादन फलन :-
जिसमें उत्पादन का एक साधन परिवर्तनशील होता है और अन्य स्थिर । इसमें एक साधन के प्रतिफल का नियम लागू होता है । इसमें उत्पादन को परिवर्तनशील साधन की इकाईयों को बढ़ाकर ही बढ़ाया जा सकता है । इसे परिवर्ती अनुपात के नियम से भी जाना जाता है ।
( ii ) दीर्घकालीन उत्पादन फलन :-
जिसमें उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनशील होते हैं । इसमें पैमाने के प्रतिफल का नियम लागू होता है । इसमें उत्पादन के सभी साधनों को एक साथ समानुपात में बढ़ाकर उत्पादन बढ़ाया जाता है ।
कुल उत्पाद :-
एक निश्चित समय में प्रयुक्त सभी परिवर्ती साधन ( कारक ) की इकाईयों द्वारा किए गए सीमांत उत्पादन का योग होता है अथवा TP = EMP अथवा एक फर्म एक निश्चित समयावधि में दी गई आगतों का प्रयोग करके किसी वस्तु की जो कुल मात्रा उत्पादित करती है , उसे कुल उत्पाद कहते हैं ।
कुल उत्पाद तथा सीमांत उत्पाद में सम्बन्ध :-
1 . जब कुल उत्पाद बढ़ती हुई दर से बढ़ता है तो सीमांत उत्पाद अधिकतम स्तर तक बढ़ता है ।
2 . जब कुल उत्पाद घटती हुई दर से बढ़ता है तो सीमांत उत्पाद घटता है परन्तु धनात्मक होता है ।
3 . जब कुल उत्पाद अधिकतम होता है तो सीमांत उत्पाद शून्य होता है ।
4 . जब कुल उत्पाद घटने लगता है तो सीमांत उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है ।
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद मे संबंध :-
🔹जब MP > AP , तब AP बढ़ता है ।
🔹 जब MP = AP , तब AP अधिकतम तथा स्थिर होता है ।
🔹जब MP < AP , तोAP घटने लगता है ।
🔹दोनों वक्रं ( MP तथा AP ) उल्टे ' U ' आकार की होती हैं ।
परिवर्तनशील अनुपात का नियम :-
अल्पकाल में स्थिर साधनों की दी हुई मात्रा के साथ परिवर्ती कारक की अतिरिक्त इकाईयों का प्रयोग किया जाता है तो कुल उत्पाद में होने वाले परिवर्तन को कारक के प्रतिफल का नियम कहा जाता है । इस नियम के अनुसार - यदि अन्य साधनों को स्थिर रखते हुये किसी परिवर्ती साधन की जैसे - जैसे अधिक से अधिक इकाइयाँ बढ़ायी जाती हैं तो कुल उत्पादन सर्वप्रथम बढ़ती दर से बढ़ता है , फिर घटती दर से बढ़ता है और अंतत : घटने लगता है । इसमें TP तथा MP में तीन चरणों में परिवर्तन होता है ।
( i ) TP बढ़ती दर से बढ़ता है , MP बढ़ता है ।
( ii ) TP घटती दर से बढ़ता है , MPघटता है पर धनात्मक रहता है ।
( iii ) TP घटता है , MP ऋणात्मक हो जाता है ।
🔹प्रथम चरण ( बढ़ते प्रतिफल की अवस्था ) : कुल उत्पाद बढ़ती हुई दर से बढ़ता है : स्थिर साधनों के साथ जब परिवर्ती कारक की इकाइयों को लगातार बढ़ाकर प्रयोग किया जाता है तो प्रारम्भ में कुल उत्पाद बढ़ती दर पर बढ़ता है तथा MP भी बढ़ता है ।
🔹द्वितीय चरण ( घटते प्रतिफल की अवस्था ) : कुल उत्पाद घटती हई दर से बढ़ता है : स्थिर कारकों की निश्चित मात्रा के साथ जब परिवर्ती कारक की इकाइयों का लगातार बढ़ाकर प्रयोग किया जाता है । तब एक सीमा के पश्चात् कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है अर्थात् कुल उत्पाद वृद्धि अनुपात परिवर्ती कारक अनुपात से कम होता है MP घटने लगता है धनात्मक रहता है । जब TP अधिकतम होता है तो MP शून्य होता है ।
🔹ततीय चरण ( ऋणात्मक प्रतिफल की अवस्था ) - कुल उत्पाद घटता है : यह कारक प्रतिफल नियम का अंतिम चरण है । जब स्थिर कारकों की निश्चित मात्रा के साथ परिवर्ती कारक की इकाईयाँ लगातार बढ़ाकर उत्पादन किया जाता है तो अंतत : कुल उत्पाद घटने लगता है और सीमांत उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है ।
लागत की अवधारणा:-
स्पष्ट तथा अस्पष्ट लागतों तथा सामान्य लाभ के योग को लागत कहते हैं । लागत - स्पष्ट लागत + अस्पष्ट लागत + सामान्य लाभ ।
स्पष्ट लागतः-
वे वास्तविक मौद्रिक भुगतान जो उत्पादक द्वारा कारक व गैर कारक आगतों के प्रयोग के लिए किए जाते हैं जिनका स्वामी , उत्पादक स्वयं नहीं है स्पष्ट लागतें कहलाती हैं । उदाहरण : मजूदरी व वेतन का भुगतान , किराया , ब्याज आदि ।
अस्पष्ट लागतः-
अस्पष्ट लागतें उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादक द्वारा प्रयुक्त निजी कारकों की अनुमानित लागत है , जिसने सामान्य लाभ भी शामिल होता है । उदाहरणः स्वयं की भूमि का लगान , स्वयं की पूँजी पर ब्याज आदि ।
कुल लागत :-
एक फर्म द्वारा किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए साधान आगतों और गैर साधन आगतों पर किए गए कुल व्यय की कुल लागत कहते है।
🔹 कुल लागत कुल बंधी लागत तथा कुल परिवर्ती लागत का योग होती है ।
TC = TFC + TVC
🔹 कुल बंधी लागत से अभिप्रायः उस लागत से है जो उत्पादन के सभी स्तरों पर समान रहती है तथा उत्पादन के शून्य स्तर पर भी शून्य नहीं होती । इसका वक्र X - अक्ष के समान्तर होता है ।
TFC = TC - TVC or TFC = AFC x Q
🔹कुल परिवर्ती लागत से अभिप्रायः उस लागत से है जो उत्पादन में होने वाले परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होती है । यह उत्पादन के शून्य स्तर पर शून्य होती है । इसका वक्र कुल लागत वक्र के समांतर होता है ।
TVC = TC - TFC or TVC = AVC x Q .
🔹वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहते है । यह औसत बंधी लागत व औसत परिवर्ती लागत का योग होती है ।
🔹औसत बंधी लागत से अभिप्रायः प्रति इकाई बंधी लागत से है ।
अल्पकालीन लागतों के पारस्परिक सम्बन्ध
🔹कुल लागत वक्र तथा कुल परिवर्ती लागत वक्र एक दूसरे के समान्तर होते हैं दोनों के बीच की लम्बवत् दूरी कुल बंधी लागत के समान होती है । TFC वक्र x - अक्ष के समान्तर होता है जबकि TVC वक्र TC वक्र के समांतर होता है ।
🔹उत्पादन स्तर में वृद्धि के साथ औसत बंधी लागत वक्र व औसत लागत वक्र के बीच अंतर बढ़ता चला जाता है , इसके विपरीत औसत परिवर्ती लागत वक्र व औसत लागत वक्र के बीच अंतर में उत्पादन वृद्धि के साथ - साथ कमी आती है , किन्तु AC व AVC एक - दूसरे को कभी नहीं काटते क्योंकि औसत बंधी लागत कभी शून्य नहीं होती ।
सीमांत लागत तथा औसत परिवर्ती लागत में संबंध
🔹जब MC < AVC , AVC घटता है ।
🔹जब MC = AVC , AVC न्यूनतम तथा स्थिर होता है ।
🔹 जब MC > AVC , AVC बढ़ता है ।
सीमांत लागत तथा औसत लागत में संबंध
🔹जब MC < AC , AC घटता है ।
🔹 जब MC = AC , AC न्यूनतम तथा स्थिर होता है ।
🔹 जब MC > AC , AC बढ़ता है ।
संप्राप्ति की अवधारणा
कुल संप्राप्ति ( TR ) :
यह वह मौद्रिक राशि होती है जो एक निश्चित समयावधि में फर्म को उत्पाद की दी हुई इकाईयों की बिक्री से प्राप्त होती है ।
TR = कीमत ( AR ) x बेची गई मात्रा ( Q ) अथवा TR = EMR
औसत संप्राप्ति ( AR ) : बेची गई वस्तु की प्रति इकाई सम्प्राप्ति को औसत संप्राप्ति कहते हैं । यह वस्तु की कीमत के बराबर होती है ।
वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल संप्राप्ति में होने वाला परिवर्तन सीमांत संप्राप्ति ( MR ) कहलाता है ।
MR तथा AR में संबंध
🔹जब MR > AR , AR बढ़ता है ।
🔹जब MR = AR , AR स्थिर होता है ।
🔹जब MR < AR , AR घटता है ।
जब प्रति इकाई कीमत स्थिर रहती है तब औसत , सीमांत व कुल संप्राप्ति में संबंध ( पूर्ण प्रतियोगिता )
( a ) औसत व सीमांत संप्राप्ति उत्पादन के सभी स्तरों पर स्थिर रहती है तथा इनका वक्र x - अक्ष के समांतर होता है ।
( b ) कुल संप्राप्ति स्थिर दर से बढ़ती है व इसका वक्र मूल बिन्दु से गुजरने वाली धनात्मक ढ़ाल वाली सीधी रेखा के समान होता है ।
🔹 जब वस्तु की अतिरिक्त मात्रा बेचने के लिए प्रति इकाई कीमत घटाई जाए अथवा एकाधिकार व एकाधिकारात्मक बाजार में TR , AR तथा MR में संबंध ।
( a ) AR व MR वक्र नीचे की ओर गिरते हुए ऋणात्मक ढ़ाल वाले होते हैं । MR वक्र AR वक्र के नीचे रहता है ।
( b ) दूसरे शब्दों में AR व MR दोनों घटते हैं लेकिन MR , AR की तुलना में तेजी से घटता है ।
( c ) TR घटती दर से बढ़ता है तथा MR घटता है परन्तु धनात्मक रहता है ।
( d ) TR में उस स्थिति तक वृद्धि होती है जब तक MR धनात्मक होता है । जहाँMR शून्य होगा वहाँTR अधिकतम होता है और जब MR ऋणात्मक हो जाता है तब TR घटने लगता है ।
उत्पादक संतुलन की अवधारणा
उत्पादक से अभिप्रायः उत्पादन की संतुलन वह अवस्था है , जिसमें उत्पादक को प्राप्त होने वाले लाभ अधिकतम होता है तथा जिसमें वह किसी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं करता ।
सीमांत लागत व सीमांत संप्राप्ति विचारधारा : इस विचारधारा के अनुसार संतुलन की शर्ते निम्न हैं
( a ) सीमांत संप्राप्ति व सीमांत लागत समान हों ।
( b ) संतुलन बिन्दु के पश्चात् उत्पादन में वृद्धि की स्थिति में सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक हो ।
पूर्ति की अवधारणा
पूर्ति : जब एक विक्रेता किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर तथा निश्चित समयावधि में जितनी मात्रा बेचने के लिए तैयार होता है तो उसे उस वस्तु की पूर्ति कहते हैं ।
किसी वस्तु की पूर्ति को प्रभावित करने वाले कारक
🔹वस्तु की कीमत
🔹अन्य संबंधित वस्तुओं की कीमतें
🔹आगतों की कीमतें
🔹उत्पादन की तकनीक
🔹फर्मों की संख्या
🔹फर्मों का उद्देश्य
🔹कर तथा आर्थिक सहायता से संबंधित सरकारी नीति ।
पूर्ति वक्र :
🔹पूर्ति अनुसूची का रेखाचित्र प्रस्तुतीकरण है जो वस्तु की विभिन्न कीमतों पर पूर्ति की मात्राओं को दर्शाता है ।
पूर्ति वक्र एवं उसका ढ़ाल :
🔹पूर्ति वक्र का ढ़ाल धनात्मक होता है । यह वस्तु की कीमत तथा उसकी पूर्ति में प्रत्यक्ष संबंध को बताता है ।
🔹पूर्ति वक्र का ढ़ाल = कीमत में परिवर्तन / पूर्ति मात्रा में परिवर्तन
पूर्ति का नियम :
🔹अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत बढ़ने से पूर्ति की मात्रा बढ़ जाती है तथा कीमत कम होने से पर्ति की मात्रा भी कम हो जाती है।
व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय :
🔹उस अनुसूची से है जो एक वस्तु की विभिन्न मात्राओं को दर्शाएँ जिन्हें एक उत्पादक एक निश्चित समयावधि में कीमत के विभिन्न स्तरों पर बेचने का इच्छुक होता है ।
बाजार पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय :
🔹उस अनुसूची से है जो किसी वस्तु की उन विभिन्न मात्राओं को दर्शाएँ , जिन्हें उस वस्तु के सभी उत्पादक एक निश्चित समयावधि में कीमत के विभिन्न स्तरों पर बेचने के इच्छुक होते हैं ।
पूर्ति अनुसूची :
किसी वस्तु की विभिन्न संभावित कीमतों पर बेची जाने वाली वस्तु की विभिन्न इकाइयों का सारणीयन प्रस्तुतीकरण ही पूर्ति अनुसूची कहलाती है ।
पूर्ति की कीमत लोच
पूर्ति की कीमत लोच वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण वस्तु की पूर्ति की मात्रा की अनुक्रियाशीलता को मापती है , अथवा वस्तु की पूर्ति मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के बीच अनुपात को पूर्ति की कीमत लोच कहते हैं ।
वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई बेचने से कुल संप्राप्ति में होने वाला परिवर्तन सीमांत संप्राप्ति ( MR ) कहलाता है ।
MR तथा AR में संबंध
🔹जब MR > AR , AR बढ़ता है ।
🔹जब MR = AR , AR स्थिर होता है ।
🔹जब MR < AR , AR घटता है ।
जब प्रति इकाई कीमत स्थिर रहती है तब औसत , सीमांत व कुल संप्राप्ति में संबंध ( पूर्ण प्रतियोगिता )
( a ) औसत व सीमांत संप्राप्ति उत्पादन के सभी स्तरों पर स्थिर रहती है तथा इनका वक्र x - अक्ष के समांतर होता है ।
( b ) कुल संप्राप्ति स्थिर दर से बढ़ती है व इसका वक्र मूल बिन्दु से गुजरने वाली धनात्मक ढ़ाल वाली सीधी रेखा के समान होता है ।
🔹 जब वस्तु की अतिरिक्त मात्रा बेचने के लिए प्रति इकाई कीमत घटाई जाए अथवा एकाधिकार व एकाधिकारात्मक बाजार में TR , AR तथा MR में संबंध ।
( a ) AR व MR वक्र नीचे की ओर गिरते हुए ऋणात्मक ढ़ाल वाले होते हैं । MR वक्र AR वक्र के नीचे रहता है ।
( b ) दूसरे शब्दों में AR व MR दोनों घटते हैं लेकिन MR , AR की तुलना में तेजी से घटता है ।
( c ) TR घटती दर से बढ़ता है तथा MR घटता है परन्तु धनात्मक रहता है ।
( d ) TR में उस स्थिति तक वृद्धि होती है जब तक MR धनात्मक होता है । जहाँMR शून्य होगा वहाँTR अधिकतम होता है और जब MR ऋणात्मक हो जाता है तब TR घटने लगता है ।
उत्पादक संतुलन की अवधारणा
उत्पादक से अभिप्रायः उत्पादन की संतुलन वह अवस्था है , जिसमें उत्पादक को प्राप्त होने वाले लाभ अधिकतम होता है तथा जिसमें वह किसी प्रकार का परिवर्तन पसन्द नहीं करता ।
सीमांत लागत व सीमांत संप्राप्ति विचारधारा : इस विचारधारा के अनुसार संतुलन की शर्ते निम्न हैं
( a ) सीमांत संप्राप्ति व सीमांत लागत समान हों ।
( b ) संतुलन बिन्दु के पश्चात् उत्पादन में वृद्धि की स्थिति में सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक हो ।
पूर्ति की अवधारणा
पूर्ति : जब एक विक्रेता किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर तथा निश्चित समयावधि में जितनी मात्रा बेचने के लिए तैयार होता है तो उसे उस वस्तु की पूर्ति कहते हैं ।
किसी वस्तु की पूर्ति को प्रभावित करने वाले कारक
🔹वस्तु की कीमत
🔹अन्य संबंधित वस्तुओं की कीमतें
🔹आगतों की कीमतें
🔹उत्पादन की तकनीक
🔹फर्मों की संख्या
🔹फर्मों का उद्देश्य
🔹कर तथा आर्थिक सहायता से संबंधित सरकारी नीति ।
पूर्ति वक्र :
🔹पूर्ति अनुसूची का रेखाचित्र प्रस्तुतीकरण है जो वस्तु की विभिन्न कीमतों पर पूर्ति की मात्राओं को दर्शाता है ।
पूर्ति वक्र एवं उसका ढ़ाल :
🔹पूर्ति वक्र का ढ़ाल धनात्मक होता है । यह वस्तु की कीमत तथा उसकी पूर्ति में प्रत्यक्ष संबंध को बताता है ।
🔹पूर्ति वक्र का ढ़ाल = कीमत में परिवर्तन / पूर्ति मात्रा में परिवर्तन
पूर्ति का नियम :
🔹अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत बढ़ने से पूर्ति की मात्रा बढ़ जाती है तथा कीमत कम होने से पर्ति की मात्रा भी कम हो जाती है।
व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय :
🔹उस अनुसूची से है जो एक वस्तु की विभिन्न मात्राओं को दर्शाएँ जिन्हें एक उत्पादक एक निश्चित समयावधि में कीमत के विभिन्न स्तरों पर बेचने का इच्छुक होता है ।
बाजार पूर्ति अनुसूची से अभिप्राय :
🔹उस अनुसूची से है जो किसी वस्तु की उन विभिन्न मात्राओं को दर्शाएँ , जिन्हें उस वस्तु के सभी उत्पादक एक निश्चित समयावधि में कीमत के विभिन्न स्तरों पर बेचने के इच्छुक होते हैं ।
पूर्ति अनुसूची :
किसी वस्तु की विभिन्न संभावित कीमतों पर बेची जाने वाली वस्तु की विभिन्न इकाइयों का सारणीयन प्रस्तुतीकरण ही पूर्ति अनुसूची कहलाती है ।
पूर्ति की कीमत लोच
पूर्ति की कीमत लोच वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण वस्तु की पूर्ति की मात्रा की अनुक्रियाशीलता को मापती है , अथवा वस्तु की पूर्ति मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा वस्तु की कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के बीच अनुपात को पूर्ति की कीमत लोच कहते हैं ।